भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक संवेदनशीलता समिति का पुनर्गठन किया
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में अपनी लैंगिक संवेदनशीलता और आंतरिक शिकायत समिति (GSICC) का पुनर्गठन किया है, जो लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस पहल का मुख्य उद्देश्य न्यायिक प्रणाली में लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करना और महिला कर्मचारियों के लिए एक सुरक्षित और समावेशी कार्य वातावरण प्रदान करना है।
GSICC का उद्देश्य और महत्व
GSICC की स्थापना 2013 में भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की गई थी, जिसका उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय परिसर में यौन उत्पीड़न के मामलों को रोकना, उनका निवारण करना और लैंगिक मुद्दों के प्रति जागरूकता बढ़ाना है। इस समिति का पुनर्गठन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न्यायालय के भीतर और बाहर, दोनों जगह लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
मुख्य पहल और दिशानिर्देश
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने लैंगिक रूढ़ियों से निपटने के लिए एक हैंडबुक जारी की है, जिसमें न्यायाधीशों को उनके निर्णयों में अधिक लैंगिक न्यायपूर्ण और संवेदनशील होने (Law Street) दिया गया है। इस हैंडबुक में महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संबंध में इस्तेमाल होने वाली गलत और पसंदीदा भाषा की एक शब्दावली शामिल है, और विभिन्न प्रकार की गलत रूढ़ियों के बारे में जानकारी दी गई है।
लैंगिक रूढ़ियों से निपटना
हैंडबुक में विभिन्न प्रकार की लैंगिक रूढ़ियों पर प्रकाश डाला गया है, जैसे कि महिलाएं अत्यधिक भावुक होती हैं, तर्कहीन होती हैं, और निर्णय लेने में अक्षम होती हैं। इसमें स्पष्ट किया गया है कि किसी व्यक्ति की तर्क क्षमता उनके लिंग पर निर्भर नहीं करती है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि सभी महिलाएं बच्चे पैदा करना नहीं चाहतीं और यह व्यक्तिगत निर्णय है (Mondaq)गिक भूमिका पर रूढ़ियाँ
पुरुष और महिला कर्मचारियों के बीच भेदभाव को समाप्त करने के लिए, हैंडबुक में इस बात पर जोर दिया गया है कि समान पद पर कार्यरत महिला कर्मचारी अक्सर प्रशासनिक कार्यों में लगी रहती हैं जबकि पुरुष कर्मचारी इससे मुक्त रहते हैं। यह भेदभावपूर्ण व्यवहार कार्यस्थल पर लैंगिक समानता को बाधित करता है और इसे दूर करना आवश्यक है।
यौन हिंसा के संदर्भ में रूढ़ियाँ
हैंडबुक में यौन हिंसा और बलात्कार के संबंध में प्रचलित सामाजिक रूढ़ियों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि बलात्कार और यौन हिंसा का उपयोग सामाजिक नियंत्रण के उपकरण के रूप में किया गया है और यह कि किसी महिला की सहमति का मतलब एक बार में सभी पुरुषों के लिए सहमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि 'ना का मतलब ना होता है' और इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए।
समिति की संरचना
समिति के नए सदस्य (Mondaq)नीना गुप्ता और सोमवीर सिंह देसवाल, दो साल के कार्यकाल के लिए चुने गए हैं। इनका चयन सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन की कार्यकारी समिति के सदस्य के रूप में किया गया है और इन्हें यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायतों को सुनने और उचित कार्रवाई करने का अधिकार है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय की यह पहल न्यायिक प्रणाली में लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह न केवल न्यायालयों में बल्कि व्यापक समाज में भी लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होगी। न्यायालय की यह पहल लैंगिक भेदभाव औ (Mondaq)ने में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है और इसे व्यापक रूप से सराहा जा रहा है।
अतिरिक्त जानकारी के लिए
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए पर जाएँ। (Law Street) (The Diplomat)
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